शनिवार, 9 जनवरी 2016

लघुकथा

बेचारे
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     काम बालियां अधिकतर सेवा परायण नहीं होती ।लेकिन वह थी। पूरे वृद्धाश्रम में झाडू पोछा उसका काम था। एक दिन उसने दया से पनीले हो आये स्वर को संयत करके बेचारे वृद्ध से पूछा" बाबा आप यहां कैसे आये?"
मुंह मे भरी सुरती फच्च से कमरे के कोने में थूकते हुये बोले
"अरे !!कैसे, क्या?? लडका बच्चा जब देखो चें चें चें चें ।इधर न सुरती थूको ।उधर न थूको। 'हस्स ससुर '"अपनो घर थूकनौ को डर " छोड़ दिया घर ,चले आये हिआं।"
वह मुंह बाये अभी-अभी साफ किये फर्श पर पडी सुरती की पिचकारी को देखती कभी ' बेचारे वृद्ध 'को।
डाॅ सन्ध्या तिवारी

लघुकथा

रानी बिटिया
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"चटाक " उसके नन्हे से गाल पर पांचो उंगलियों के निशान छप गये थे ।
" तोड दिया तूने इत्ता बडा शीशा । घर में असगुन फैलाती रहती है । अपनी मां को तो खा गई ।अब न जाने किसको खायेगी।
ले अब देख इस टूटे शीशे मे अपनी रोनी सूरत। 
देखती हूं, कौन लाकर देता है तूझे नया शीशा ?
"न बेटा! टूटे आइने में मुंह नही देखते, उमर कम होती है ।मैं तेरे पापा से आज ही नया शीशा मंगा दूंगी ।बहुत शौक है न मेरी गुडिया रानी को सजने का ।ऊं ऊं मेली लानी बिटिया।"
मां की कोमल उंगलियों ने ठुड्डी को पकड के हिला दिया था।
रचना का अतीत वर्तमान पर हाबी हो जाता जब जब वह टूटे आइने मे खुद को देखती तो सोचती आज शायद यह मेरा आखरी दिन होगा, क्योकि मां ने कहा था ; "टूटा आइना देखने से उम्र कम होती है। " मैं तो इतने सालों से टूटा आइना देख रही हूं।
दिल की कराह आंखो के रास्ते बह निकलती।
रचना तैयार हो जाओ बरात आती ही होगी
रिश्ते की भाभी ने हाथ पकड कर उसे ड्रेसिंग टेवल के सामने लाकर खडा कर दिया।
रचना  अंदर तक कांप गई
मुस्कुराती हुई मां ने शीशे में से पुकारा ; " मेरी रानी बिटिया अब कभी टूटा शीशा मत देखना उमर कम होती है।"
रचना शीशे को सीने से चिपकाये फूट फूट कर रोते हुये बोली ; " मां तुमने झूठ क्यों कहा मेरी उमर तो कहीं कम नहीं हुई।रत्ती भर भी नहीं।"
डाॅ सन्ध्या तिवारी

लघुकथा

तंज
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मुझे डी. एम. बने कुछ ही महीने हुये थे।
कर्तव्य जोश से भरी मैं एक दिन अपने अधीनस्थ एक गाँव के सरकारी स्कूल में औचक निरीक्षण को जा पहुँची।
सारा स्कूली अमला सकते मे आ गया ।
"मिड डे मील चेक करो"  मैने आदेशात्मक स्वर में अर्दली से कहा।
अर्दली तुरंत मध्यांतर भोजन चेक करने लगा -
" दाल इतनी पतली क्यों है ? और हरी सब्जी बनी कि नही ? बच्चो को कुछ पौष्टिक मिल भी रहा है कि नहीं ?"  मैंने घूर कर प्रधानाध्यापिका से कहा-

वह कुछ सहम सी गईं,  बोलीं कुछ नहीं।

मैंने कक्षा में जाकर बच्चों से कुछ प्रश्न पूछे उनका उत्तर भी नहीं मिला ।मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर था ।
मैने पुनःप्रधानाध्यापिका से कहा ; " क्या है मैडम ये सब ? ऐंऽ  ! कोई नाक बहा रहा है? कोई पेंसिल चबा रहा है ?  साफ सफाई का कोई ध्यान नहीं। किसी को कुछ भी आता जाता नहीं ।और ये सब ठाठ फट्टी पर क्यों बैठे हैं कोई कुर्सी मेज का कायदा  है कि नहीं ।ये स्कूल है या बूचड खाना? सरकार की तरफ से कितनी सहायता मिलती है इन स्कूलो को? फिर भी ऐसी दुर्गति।और क्या किया जाये, इन स्कूलों की दशा सुधारने को ?

"काश आप जैसे बडे घरो के  बच्चे यहाँ पढ़ते तो इन स्कूलो को दिशा मिल जाती।"

       कहीं से फुसफुसाहट उभरी ।

डाॅ संध्या तिवारी

लघुकथा

दुकान
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सडक के दांयी ओर पूजा जनरल स्टोर थाऔर बांयी ओरगुप्ता प्रोवीजन स्टोर था।दोनो दुकाने आमने सामने थी।

पूजा जनरल स्टोर गोरी चिट्टी नखरीली अदाओं से लबरेज लगभग बीस पच्चीस बर्ष की पूजा खुद सम्भालती थी।

बांये अंग से बेकार पक्षाघात से पीडित गुप्ता जी अपनी दस बर्षीय बेटी तनु के साथ गुप्ता प्रोविजन स्टोर सम्भालते थे।

जहाँ गुप्ता जी की दुकान में इक्का दुक्का ग्राहक आते बहीं पूजा को ग्रहको के चलते सांस लेने की फुर्सत नही मिलती।

तनु ने इस बात को लेकर कितनी ही बार अपने पापा से शिकायत की लेकिन गुप्ता जी वही घिसा-पिटा जबाव देते ; " जितना किस्मत में होगा उतना ही तो मिलेगा।"
        तनु इस जबाव को कभी आत्मसात् नहीं कर पाती ।
         धीरे धीरे वह सामने वाली पूजा की नकल करने लगी ।
वह उसी के समान दुकान सजाती । सुबह शाम पूजा करती । ग्राहकों से भी बड़ी तमीज़ से बात करती।
लेकिन ग्राहक फिर भी नहीं आता  ।
               परेशान तनु ने ठान लिया कि आज वह पूजा से दुकान अच्छी चलने का राज जान कर ही रहेगी ।

  जेठ दोपहर ग्राहको की आवक कुछ कम थी ।
अच्छा मौका जान तनु पूजा के पास पहुँची और बोली ; " दीदी एक बात बताओ तुम्हारी दुकान की तरह हमारी दुकान क्यों नही चलती ?"
पूजा ने तनु को ऊपर से नीचे तक भेदक दृष्टि से देखा , परखा, फिर एक आँख दबा कर हँस पडी और बोली ; "बस चार पाँच साल रुक जा तेरी दुकान भी चलेगी।"

डाॅ संध्या तिवारी

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

लघुकथा :चिमटी

चिमटी
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         आत्मा पर बडा बोझ था , जो रातों में सपना बन कर डराता था और दिन में सोच ।
         अब क्या करूं , मैं तो था ही कायर, लेकिन वह तो समझदार थी, उसे अपनी जान देने की क्या जरूरत थी।वह मरकर मुक्त हो सकी भला क्या? और मै जीकर भी मुक्त हो पाया भला क्या उसकी यादों से। क्या करूं? कहां जाऊं ?कैसे इस अपराध बोध से मुक्ति होगी ?
    इन्ही बातो की सोच में डूबता उतराता विपुल बान की खरखटी खटिया पर बैठा  कभी एक छेद मे हाथ डालता कभी अदबाइन के सहारे सहारे अंगुलियां किसी और छेद में जा ठहरती ।जैसे सोच के कई खाने बने हो और उनमें से किस खाने में ग्लानि की भरपाई का मल्हम मिलेगा  अंगुलिया टोहकर ढूंढ़ना चाह रही हों।   "आऊच... " कह कर उसने हाथ खींच लिया बान की फांस अंगुली के मांस में धंस चुकी थी ।वह नाखूनो की चिमटी बना कर फांस निकालने का भरसक प्रयत्न कर रहा था लेकिन फांस थी कि अन्दर ही अन्दर टूटती जा रही थी ।फांस मांस मे धंस चुकी थी  बहुत दर्द और चीसन बढ गयी थी। अब तो इसके लिये बाजार से चिमटी ही लानी पडेगी तब  कही जाकर...
कहकर विपुल तर्पण के लिये जल , काले तिल , जौ , फूल की थाली , कुश की पैंती और सफेद फूल अंजुली में भर कर बैठा।
" आप पिछले कई सालो से किसका तर्पण कर रहे है भगवान की कृपा से मां बाऊ जी सभी कुशल मंगल से है, तो...?"
पत्नी जिज्ञासा और प्रश्न चिन्ह की प्रतिमूर्ति सी बनी खडी थी।
विपुल अपनी फांस लगी अंगुली की चीसन दबाते हुये बोला ; " तर्पण कहां है यह , यह तो मन की फांस की चिमटी है , और अंजुली भरे पानी में दो आंसु  टपक गये।
डाॅ सन्ध्या तिवारी